क्षेत्रपाल बलि अनुष्ठान
एक मिट्टी का बडा दीपक ( सराई ) लेकर उसमें चार मुंह की ज्योत लगावें । दीपक में सरसों का तेल डालें . उसमें सिन्दूर , उडद , पापड , दही , गुड , सुपारी आदिरखकर दीप प्रज्वलित करें और क्षेत्रपाल का आवाहन करें ।
ॐ क्षेत्रपालाय शाकिनी डाकिनी भूतप्रेत बेताल पिशाच सहिताय इमं बलिं समर्पयामि । भो क्षेत्रपाल : दिशो रक्ष बलिं भक्ष मम यजमानस्य सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य आयु : कर्ता शांतिकर्ता तुष्टिकर्ता पुष्टिकर्ता वरदो भव : ।
ॐ ह्नीं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरु कुरु बटुकाय ह्नीं ॐ ।
ॐ क्षेत्रपालाय नम : । इति पंचोपचारै : संपूज्य । प्राथयेत्
ॐ नमो वै क्षेत्रपालस्त्वं भूतप्रेत , गणै : सह । पूजाबलिं गृहाणेमं सौम्यो भवतु सर्वदा ॥
पुत्रान् देहि धनं देहि सर्वान् कामांश्च देहि में । देहि में आयुरारोग्यं निर्विघ्नं कुरु सर्वदा न : ॥
अब इस दीपक को उठाकर यजमान की तरफ आवृत कर बिना पीछे मुडे बाहर दीपक को चौराहे पर रखावें । ब्राह्मण शांतिपाठ करें । ब्रह्मा जी द्वार तक जल छोडें दीपक को रखकर आने वाला व्यक्ति नहाकर या हाथ पैर धोकर आवे ।
पूर्णाहुति
स्त्रुवे से नारियल के गोले में घी भरकर रोली , मोली लगाकर उस पर एक सुपारी रख देवे । नारियल के मुख को सम्मुख करके पूर्णाहुति देवें ।
पहले ” पूर्वाहुत्यां मृडनाम्ने वैश्वानराय ” इदं गन्द्य , पुष्पं , धूपं नैवेद्यं आचमनीय से पंचोपचार पूजन करें ।
पीछे ” एकोनपंचाशद् मरुद्गणेभ्यो नम : ” से नारियल पर मरुद्गणों की पूजा करें । फिर विनियोग करके पूर्णाहुति मन्त्रों से पूर्णाहुति करें ।
विनियोग
ॐ मूर्द्धान मिति मन्त्रस्य भारद्वाज ऋषि : वैश्वानरोदेवता त्रिष्टुप् छन्द : पूर्णाहुति होमे विनियोग : ।
ॐ मूर्द्धानं दिवो अरतिं पृथिव्या वैश्वानरमृत आ जातमग्रिम् । कवि र्ठ साम्राज्यमतिथिं जनानामासन्ना पात्रं जनयन्त देव : ॥१॥
पूर्णादर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत ॥ वस्नेव विक्रीणा वहाऽइषमूज् शतक्रतो ॥२॥
चित्तिं जुहोमि मनसा घृतेन यथा देवाऽइहा गमन्वीतिहोत्राऽऋतावृध : ॥ पत्ये विश्वस्यभूमनो जुहोमि विश्वकर्मणे व्विश्वाहादाभ्यं हवि : ॥३॥
सप्तते अग्ने समिध : सप्त जिह्वा : सप्तऋषय : सप्त धाम प्रियाणि । सप्तहोत्रा : त्वा यजंति सप्त योनिरापृणस्व घृतेन स्वाहा ॥४॥
शुक्र ज्योतिश्च चित्र ज्योतिश्च सत्यज्योतिश्च ज्योतिष्माँश्च शुक्रश्च ऋतपाश्चात्य स्वाहा : ॥५॥
ईद्दड् चान्यादृड च दद्दड् प्रतिसद्दड् च । मितश्च संमितश्च सभरा : ॥६॥
ऋतश्च सत्यश्च , ध्रुवश्च , धरुणश्च । धर्ता च विधर्ता च व्विधारय : ॥७॥
ऋतजिच्च सत्यजिच्च सेनजिच्च सुषेणश्च । अन्तिमित्रश्च दूरे अमित्रश्च गण : ॥८॥
ईदृक्षास ऽएतादृक्षास ऽउ षु ण : सदृक्षास : प्रतिसदृक्षास ऽएतन । मितासश्च सम्मितासो नोऽअद्य सभरसो मरुतो यज्ञेऽअस्मिन् ॥९॥
स्वतवांश्च प्रघासी च सांतपनश्च गृहमेधी च । क्रीडी च शाकी चोज्जेषी ॥१०॥
उग्रश्च , भीमश्च ध्वांतश्य धुनिश्च । सासह्यांश्चाभि युग्वा च विक्षिप : स्वाहा ॥११॥
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