मूर्ति प्रतिष्ठा क्या है
पंचरात्र आगम शास्त्रों द्वारा निर्धारित वैदिक संस्कारों और मंत्रों का जाप करके एक मूर्ति में भगवान का आह्वान करने का एक अनुष्ठान है। नवीन मूर्ति में प्राण सर्जन की क्रिया को प्राण प्रतिष्ठा कहते हैं
कब करे प्राण प्रतिष्ठा
प्राण प्रतिष्ठा हमेशा शुक्ल पक्ष के मंगलवार को ही करें अथवा स्थिर लग्न और शुभ नक्षत्र में करें। इस बात का ध्यान रहे कि राहुकाल में प्राण प्रतिष्ठा वर्जित है
किस नक्षत्र में किस देवता की प्रतिष्ठा श्रेष्ठ होती है इस संबंध में अनुरोध किया गया है कि रोहिणी, तीनों उत्तरा, रेवती, धनिष्ठा, अनुराधा मृगशिरा, हस्त, पुनर्वसु, अश्विनी और पुष्य नक्षत्र में विष्णु की, पुष्य, श्रवण और अभिजीत में इंद्र, ब्रह्मा, कुबेर एवं कार्तिकेय की, अनुराधा में सूर्य की, रेवती में गणेश व सरस्वती तथा हस्त और मूल में दुर्गा की प्रतिष्ठा करना श्रेष्ठ रहता है। माहों में चैत्र, फाल्गुन, ज्येष्ठ, वैशाख और माघ समस्त देवताओं को प्रतिष्ठा के लिए उपयुक्त रहते हैं तिथियों में द्वादशी तिथि भगवान विष्णु, चतुर्थी गणेश तथा नवमी तिथि दुर्गा की प्रतिष्ठा के लिए विशेष रूप से निर्धारित की गई है। वारों के लिए कहा गया है कि-
तेजस्विनी क्षेमकृदग्रिहाद विधायिनी स्याद्वनदा दृढा च।
आनंदनकृत कल्पविनाशिनी च सूर्यदिवारेषु भवेत्प्रतिष्ठा।।
अर्थात रविवार को की गई प्रतिष्ठा तेजस्विनी, सोमवार को कल्याण कारिणी, मंगलवार को अग्रिदाह कारिणी, बुधवार को धन दायिनी, वीरवार को बलप्रदायिनी, शुक्रवार को आनंददायिनी, शनिवार को सामर्थ्य विनाशिनी होती है। धर्म ग्रंथों में स्पष्ट कहा गया है कि जो प्रतिमा खंडित हो जाए उसका पूजन नहीं करना चाहिए।
अधिवास कितने होते हैं
1 कर्मकुटीर
एक मूर्ति को तराशने के बाद, इसे कारीगर के कार्यस्थल में शुद्ध किया जाना चाहिए जहाँ मूर्ति बनाई गई थी; यह पहला कदम कर्मकुटीर के नाम से जाना जाता है। कारीगर पूरी मूर्ति को दुब घास से स्पर्श करता है। दुब घास को वेदों में पवित्र माना गया है
2. जलाधिवास
मूर्ति को यज्ञ मंडप में ले जाया जाता है जहाँ यज्ञ किया जाना है। यहाँ, मूर्ति जल में शयन कराया जाता है
.अन्नादिवास
धान्य (अनाज या दाल) अन्न में वास कराया जाता है मूर्ति को अन्न में शयन करा दिया जाता है। फिर मूर्ति को पूरी तरह से अधिक धान्य, आमतौर पर चावल या गेहूं के दाने से ढक दिया जाता है। यह मूर्ति को और शुद्ध करने के लिए किया जाता है।
पत्रादिवास
पंच पल्लव में पांच तरह के पतो में वास कराया जाता है
फलादिवास
फिर भगवान के श्री विग्रह को फलों में वास कराया जाता है
फूलो में निवास
भगवान को फलों के बाद फूलो के बाद फूलो में वास कराया जाता है फूलो के बाद भगवान के अन्तरपट को खोल दिया जाता है अन्तरपट को खोलकर फिर दुर्बा से भगवान की आखो में गाय का घी लगाया जाता है उसके बाद
फूलो के बाद भगवान के श्री विग्रह को पन्चामृत से अभिषेक कराया जाता है और उसके बाद भगवान को नवीन वस्त्र धारण कराये जाते हैं फिर उनको सिहासन पर विराजमान कर षड्षोपचार से पूजन किया जाता है
इसके बाद होम जप के दसवें अंश का हवन किया जाता है क्षमा पार्थना एवं पुष्पांजलि कर ये अनुष्ठान पूरा हो जाता है
षट्कर्म
जिन्हें प्राण- प्रतिष्ठा करनी है, उन्हें प्रतिमाओं के पर्दे के बाहर आसन पर बिठाकर पहले षट्कर्म करा दिया जाए। २- शुद्धि सिंचन- यज्ञ के कलशों का जल अनेक पात्रों में निकाल कर रखा जाए। मन्त्र पाठ के साथ उस जल का सिंचन, उपस्थित व्यक्तियों, पूजन सामग्री, मन्दिर एवं मूर्तियों पर किया जाए।
अस्य श्री प्राण प्रतिष्ठा मंत्रस्य विष्णुरूदौ ऋषी ऋग्यजु: सामान्छिदांसि प्राणख्या देवता।। ॐ आं बीजं हीं शक्ति: क्रां कीलंय यं रं लं वं शं षं सं हं हं स: एत: शक्तय: मूर्ति प्रतिष्ठापन विनियोग:।। ॐ आं ह्मीं कों यं रं लं वं शं षं हं स: देवस्य प्राणा: इह पुरूच्चार्य देवस्य सर्वेनिन्द्रयाणी इह:।