गीता में भगवान ने स्वयं कहा है
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
समस्त धर्म ग्रंथों में गायत्री की महिमा एक स्वर से कही गई। समस्त ऋषि-मुनि मुक्त कंठ से गायत्री का गुण-गान करते हैं। शास्त्रों में गायत्री की महिमा के पवित्र वर्णन मिलते हैं। गायत्री मंत्र तीनों देव, बृह्मा, विष्णु और महेश का सार है। गीता में भगवान् ने स्वयं कहा है ‘गायत्री छन्दसामहम्’ अर्थात् गायत्री मंत्र मैं स्वयं ही हूं। गायत्री को वेद माता कहा है समस्त वेद पुराणों का सार है गायत्री का जप प्रत्येक विप्र को गायत्री जप करना चाहिए
गायत्री मन्त्र का अर्थ
ॐ = सबकी रक्षा करने वाला हर कण कण में मौजूद
भू = सम्पूर्ण जगत के जीवन का आधार और प्राणों से भी प्रिय
भुवः = सभी दुःखों से रहित, जिसके संग से सभी दुखों का नाश हो जाता है
स्वः = वो स्वयं:, जो सम्पूर्ण जगत का धारण करते हैं
तत् = उसी परमात्मा के रूप को हम सभी
सवितु = जो सम्पूर्ण जगत का उत्पादक है
र्वरेण्यं = जो स्वीकार करने योग्य अति श्रेष्ठ है
भर्गो = शुद्ध स्वरूप और पवित्र करने वाला चेतन स्वरूप है
देवस्य = भगवान स्वरूप जिसकी प्राप्ति सभी करना चाहते हैं
धीमहि = धारण करें
धियो = बुद्धि को
यो = जो देव परमात्मा
नः = हमारी
प्रचोदयात् = प्रेरित करें, अर्थात बुरे कर्मों से मुक्त होकर अच्छे कर्मों में लिप्त हों
इस समय करें गायत्री मंत्र का जप
वेद-पुराणों में इस जप को करने के लिए तीन समय उपयुक्त बताए गए हैं। पहला समय प्रात:काल का, सूर्योदय से थोड़ी देर पहले गायत्री मंत्र का जप शुरू करके सूर्योदय के बाद तक करना चाहिए, दूसरा समय है दोपहर का और तीसरा समय है शाम का सायंकाल में सूर्यास्त के कुछ देर पहले मंत्र जप शुरू करके सूर्यास्त के कुछ देर बाद तक जप करना अच्छा माना गया है। इन तीन समय के अलावा यदि गायत्री मंत्र का जप कभी और करना हो कर सकते हैं लेकिन ऐसी स्थिति में मौन रहकर जप करना चाहिए। मंत्र जप तेज आवाज में नहीं करना चाहिए।
गायत्री साधना लाभ
गायत्री वेदमाता हैं एवं मानव मात्र का पाप नाश करने की शक्ति उनमें है । इससे अधिक पवित्र करने वाला और कोई मंत्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है । भौतिक लालसाओं से पीड़ित व्यक्ति के लिए भी और आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले मुमुक्षु के लिए भी एकमात्र आश्रय गायत्री ही है । गायत्री से आयु, प्राण, प्रजा, पशु,कीर्ति, धन एवं ब्रह्मवर्चस के सात प्रतिफल अथर्ववेद में बताए गए हैं, जो विधिपूर्वक उपासना करने वाले हर साधक को निश्चित ही प्राप्त होते हैं । जाति, मत, लिंग भेद से परे कोई गायत्री साधना कर सकता है । सबके लिए उसकी गायत्री मंत्र साधना करने व लाभ उठाने का मार्ग खुला हुआ है ।
साधना के नियम
गायत्री साधना करने से पूर्व साधक को नित्य कर्म से निवृत होकर साफ़ पीले रंग के कपड़े धारण करें। गायत्री मंत्र साधना के लिए आप ऐसा स्थान चुनें जंहा आप आलस्य से दूर और वातावरण शांत हो | गायत्री मंत्र साधना के सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व से सूर्यास्त के एक घंटे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है । मौन-मानसिक जप या मन्त्रलेखन चौबीस घण्टे किया जा सकता है । ब्रह्म मुहूर्त अर्थात् सूर्योदय से पूर्व का समय उपयुक्त है | संध्या के समय पूजा आरती के बाद भी जप का समय सही माना गया है | गायत्री मंत्र साधना करते समय साधक को पूर्वमुखी या उत्तरमुखी होकर करनी चाहिए | गायत्री मंत्र साधना जाप जिस समय पर आप कर रहे है अगले दिन उसी समय पर जाप करे |
गायत्री मंत्र साधना से पूर्व शुद्ध घी का दीपक जला लें और एक लोटा जल में मिश्री के एक या दो दाने डालकर रख दें। जप के बाद शांतिपाठ मंन्त्र में उस लोटे से जल लेकर स्वयं के ऊपर छिड़क लें। फ़िर जल को सूर्य को या तुलसी के गमले में अर्पित कर दें। यदि आप अकेले में रहते हो और दीपक घी का जलाने में असुविधा है तो धुपबत्ती जला लो। अगर कुछ भी संभव नहीं तो एक लोटे जल को समक्ष रख के
गायत्री मंत्र सद्बुद्धि का मंन्त्र है इसके लिए तुलसी या चंदन की माला सर्वोत्तम है। यदि यह दोनों मालायें संभव ना हो तो रुद्राक्ष की माला से भी गायत्री मंत्र जपा जा सकता है। गायत्री मंत्र उच्चारण करते समय माला को कपडे की थैली में रखे | माला जाप करते समय कभी ना देखे की कितनी मोती शेष बचे है | इससे अपूर्ण फल मिलता है | ध्यान रखे की जैसा गायत्री मंत्र बताया गया है वो ही उच्चारण आप करे | गायत्री मंत्र उच्चारण में गलती ना करे | होठ हिले और हल्की फुसफुसाहट सी हो लेकिन बगल में बैठा व्यक्ति भी मंन्त्र न सुन सके। ऐसे गायत्री मंत्र साधना जपना है, जिससे मुख का अग्निचक्र एक्टिवेट हो जाये। माला को फेरते समय दांये हाथ के अंगूठे और मध्यमा अंगुली का प्रयोग करे | माला पूर्ण होने पर सुमेरु को पार नही करे | माला पूरी होने पर माला को प्रणाम करके माथे पर लगाएं । फ़िर जप पुनः प्रारम्भ करें।
पावन मन्त्र
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।