विवाह संस्कार पूजा – Vivah Puja

गृहस्थाश्रम का आधार ही विवाह संस्कार है षोडश संस्कारो में ये चौदहवाँ संस्कार है। इस संस्कार के बाद वर-वधू अपने नए जीवन में प्रवेश करते हैं। यह केवल एक संस्कार नहीं है बल्कि यह ग्रहस्थ आश्रम का प्रवेश है। इसी संस्कार के बाद से मनुष्य के चार आश्रमों में से सबसे अहम आश्रम यानी गृहस्थ आश्रम का आरंभ होता है। हिंदू संस्कारों में ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में वैवाहिक विधि-विधानों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति का वर्ण किया गया है। गृहस्थाश्रम का आधार ही विवाह संस्कार है।

श्रुति ग्रंथो में विवाह के स्वरूप को व्याख्यायित किया गाय है। इसमें कहा गया है कि दो शरीर, दो मन, दो बुद्धि, , दो प्राण एवं दो आत्माएं का मेल ही विवाह है। ऐसा कहा जाता है कि जब जातक का जन्म होता है तब वो तीन ऋण लेकर जन्मता है देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण इन तीनो का ऋणि होता है। ऐसे में देव ऋण चुकाने के लिए पूजा-पाठ, यज्ञ हवन आदि किए जाते हैं। फिर ऋषि ऋण से मुक्त होने के लिए वेदाध्यन संस्कार यानि गुरु से ज्ञान प्राप्त किया जाता है। वहीं, पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए विवाह संस्कार का होना बेहद आवश्यक हो जाता है। यह ऋण तब तक नहीं उतरता जब तक जातक स्वयं पिता नहीं बन जाता। अत: शास्त्रानुसार पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए विवाह संस्कार बेहद अहम है।

 तिलक की रस्म 

शादी से पहले जरूर की जाती है. यह शादी की सबसे पहली और जरूरी रस्म है, जो कि शादी से कुछ दिन पहले होती है. तिलक की रस्म में दुल्हन के पिता या भाई दूल्हे के माथे पर तिलक करते हैं और उसे भेंट में पैसे, नए वस्त्र, फल,मेवे और मिठाइयां दी जाती है. तिलक की रस्म होने के बाद शादी की अन्य तैयारियां शुरू की जाती है.

पाणिग्रहण संस्कार सूची

वर-वरण (तिलक) ,हरिद्रालेपन,द्वार पूजा ,मंगलाष्टक ,परस्परउपहार,हस्तपीतकरण,कन्यादान,गोदान मर्यादाकरण, पाणिग्रहण,ग्रन्थिबन्धन,वर-वधू की प्रतिज्ञाएँ,प्रायश्चित होम,शिलारोहण,लाजाहोम एवं परिक्रमा (भाँवर),सप्त पदी, आसन परिवतर्न ,पाद प्रक्षालन,शपथ आश्वासन,मंगल तिलक

विवाह संस्कार: 

वधू का पिता विवाह संस्कार का संकल्प कर विवाह संस्कार प्रारंभ करते हैं। वर को विष्णु स्वरूप मानकर पूजन करते हैं। घी, दही, मधु को कांसे के पात्र में मिलाकर वर के सत्कार में मधुपर्क खिलाया जाता है। गणेश व नवग्रह पूजन किया जाता है। वधू का पिता वर के कुलगुरू को गोदान देता है। वधू को बुलाकर सुहागिन स्त्री द्वारा वधू का शृंगार किया जाता है, स्वर्ण आभूषण पहनाए जाते हैं।

कन्या का लक्ष्मी स्वरूप में माता-पिता पूजन करते हैं। तदुपरांत माता-पिता अपनी कन्या के हाथ पीले कर लक्ष्मी स्वरूप कन्या का हाथ विष्णु स्वरूप वर के हाथ में देकर कन्या दान का संकल्प लेते हैं और उनके शुभ वैवाहिक जीवन की कामना करते हैं। वर द्वारा अग्नि स्थापन किया जाता है। चंदन, घी, अक्षत, शक्कर व नवग्रह वनस्पतियों के साथ हवन किया जाता है।

कन्या का भाई बहन के हाथ में खील (लाजा) देता है जिसे वधू वर के हाथ में देती है और वर अग्नि में होम करता है। वर कन्या का गठबंधन कर अग्नि के चारों ओर फेरे लिए जाते हैं। पहले तीन फेरों में कन्या आगे रहती है। बाद के चार फेरों में वर आगे रहता है। यह मंगल कार्यों में पत्नी का आगे रहना दर्शाता है, तदुपरांत धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष में पति का आगे रहना ही श्रेष्ठ है। फेरों के पश्चात सप्तपदी होती है अर्थात वर कन्या को सात वचन देता है एवं कन्या भी वर को सात वचन देती है।

इसके पश्चात वर कन्या को अपने वामांग लेता है और कन्या के स्वर्ण शलाका से मांग में सिंदूर भरते हैं। वर द्वारा विवाह संस्कार यज्ञ की पूर्णाहुति की जाती है। सभी बंधु बांधव वर व कन्या पर पुष्पांजलि द्वारा शुभ वैवाहिक जीवन की कामना करते हैं। इसके बाद सभी वर वधु पक्ष के लोग वर वधु को आशीर्वाद देते है और उनके मंगल सुखमय गृहस्थ जीवन की कामना करते है

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