नामकरण
शिशु जन्म के बाद पहला संस्कार कहा जा सकता है। यों तो जन्म के तुरन्त बाद ही जातकर्म संस्कार का विधान है, किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में वह व्यवहार में नहीं दीखता। अपनी पद्धति में उसके तत्त्व को भी नामकरण के साथ समाहित कर लिया गया है। इस संस्कार के माध्यम से शिशु रूप में अवतरित जीवात्मा को कल्याणकारी यज्ञीय वातावरण का लाभ पहुचाने का सत्प्रयास किया जाता है। जीव के पूर्व संचित संस्कारों में जो हीन हों, उनसे मुक्त कराना, जो श्रेष्ठ हों, उनका आभार मानना-अभीष्ट होता है। नामकरण संस्कार के समय शिशु के अन्दर मौलिक कल्याणकारी प्रवृत्तियों, आकांक्षाओं के स्थापन, जागरण के सूत्रों पर विचार करते हुए उनके अनुरूप वातावरण बनाना चाहिए। शिशु कन्या है या पुत्र, इसके भेदभाव को स्थान नहीं देना चाहिए। भारतीय संस्कृति में कहीं भी इस प्रकार का भेद नहीं है। शीलवती कन्या को दस पुत्रों के बराबर कहा गया है। ‘दश पुत्र-समा कन्या यस्य शीलवती सुता।’ इसके विपरीत पुत्र भी कुल धर्म को नष्ट करने वाला हो सकता है। ‘जिमि कपूत के ऊपजे कुल सद्धर्म नसाहिं।’ इसलिए पुत्र या कन्या जो भी हो, उसके भीतर के अवांछनीय संस्कारों का निवारण करके श्रेष्ठतम की दिशा में प्रवाह पैदा करने की दृष्टि से नामकरण संस्कार कराया जाना चाहिए। यह संस्कार कराते समय शिशु के अभिभावकों और उपस्थित व्यक्तियों के मन में शिशु को जन्म देने के अतिरिक्त उन्हें श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न बनाने के महत्त्व का बोध होता है। भाव भरे वातावरण में प्राप्त सूत्रों को क्रियान्वित करने का उत्साह जागता है। आमतौर से यह संस्कार जन्म के दसवें दिन किया जाता है। उस दिन जन्म सूतिका का निवारण-शुद्धिकरण भी किया जाता है। यह प्रसूति कार्य घर में ही हुआ हो, तो उस कक्ष को लीप-पोतकर, धोकर स्वच्छ करना चाहिए। शिशु तथा माता को भी स्नान कराके नये स्वच्छ वस्त्र पहनाये जाते हैं। उसी के साथ यज्ञ एवं संस्कार का क्रम वातावरण में दिव्यता घोलकर अभिष्ट उद्देश्य की पूर्ति करता है। यदि दसवें दिन किसी कारण नामकरण संस्कार न किया जा सके। तो अन्य किसी दिन, बाद में भी उसे सम्पन्न करा लेना चाहिए। घर पर, प्रज्ञा संस्थानों अथवा यज्ञ स्थलों पर भी यह संस्कार कराया जाना उचित है।
नामकरण संस्कार विधि
इस दिन माता-पिता नहाकर नए वस्त्र पहनते हैं और शिशु को भी नहा कर नए कपड़े पहनाए जाते हैं।
फिर माता-पिता बच्चे को अपनी गोद में लेकर हवन स्थल पर बैठते हैं।
इसके बाद पंडित हवन करने के बाद बच्चे की कुंडली बनाते हैं। कुंडली के अनुसार बच्चे की जो राशि होती है, उसके हिसाब से एक अक्षर का चयन किया जाता है। माता-पिता अपने शिशु के लिए इसी अक्षर से शुरू होता नाम रखते हैं। आजकल लोग पहले ही कुंडली बनवाकर अक्षर पता कर लेते हैं और उसी के अनुसार पहले से कोई अच्छा नाम सोच लेते हैं।
पूजा आदि के बाद माता-पिता कान में बच्चे का नाम बोलते हैं और फिर एक-एक करके पूरे स्नेह के साथ सभी सदस्य व रिश्तेदार बच्चे को अपनी गोद में लेते हैं और उसे उसके नाम से पुकारते हैं।
कुछ समुदायोंं में इस दौरान पांच विवाहिता महिलाओं को शामिल किया जाता है और उन्हीं की उपस्थिति में विधि-विधान से पूजा आदि की जाती है।
पूजा सामग्री
कलाश, 1
रोली 2
कलावा (मोली) 4
लौंग 20 रु
इलायची 20 रु
सुपारी। 7
पान पत्ता 7
बताशा। 250 ग्रा,
मिश्री 100 ग्रा,
शहद शीशी। 1
इत्र 1
जनेऊ। 5
दोना 2 गड्डी
नारियल पानी वाला 1
लाल कपड़ा सवा मि,
मिठाई 5 प्रकार की सवा की,
फल 5 तरह के (ऋतू फल )
फूल माला 5
खुले फूल 500 ग्रा,
चावल 500 ग्रा,
खाँड़ 250 ग्रा,
कपूर 1 डब्बी
तौलिया 1
धूप बती 2
रुई
माचिस
गोला सूखा 1
देशी घी 500 ग्रा,
हवन सामग्री 500 ग्रा,
पीली सरसो 50 ग्रा,
इन्द्र जौ 50 ग्रा,
काले तिल 50 ग्रा,
चन्दन चुरा 50 ग्रा,
सर्व औषधि
नव ग्रह लकड़ी 1
हवन समिधा 2 की, ( आम या पीपल की लकडी )
ब्राह्मण का वरण (5 कपड़े )
आम या अशोक के पते
चौकी (घर से)
देव प्रतिमा (घर से )
नजरिया बच्चे के लिए